उन्नीसवीं सदी के आखिरी दशक में बहन निवेदिता राजस्थान के ऐतिहासिक चित्तौड़ दुर्ग की ओर यात्रा कर रही थी । चांदनी भरे आधी रात में पहाड़ के ऊपर उस किले का ध्वंसावशेष को देख खूब भावुक होकर उन्होंने रानी पद्मिनी को याद किया था । कभी अपने मायके से दुल्हन बन के इसी किले में जाते समय रानी पद्मिनी ने भी दूर से यह किला देखा होगा । उस समय क्या वह कल्पना की होंगी अपनी नियति ? क्या मालूम हुआ होगा अपनी महत जिंदगी की दुख भरी परिणति ? क्या जानती होंगी कि समय की अंत तक चित्तौड़ के किले की हर एक पत्थर के ऊपर चल रही हवा की लहर उनकी की ही याद में उदासी धुन बनाएगी ?
इसके कुछ दिन पहले ही स्वामी विवेकानंद से प्रभावित होकर पाश्चात्य से आकर के भारतवर्ष को अपने देश के रूप में अपनाने वाली निवेदिता के मन में पद्मिनी अथवा पद्मावती संपर्कित किंबदंती कितनी गहरी प्रभाव डाली होगी यह उसी की आभास देती है ।
क्या उस महत जीवन के ऊपर ७०० साल बाद आज फिर से एक दुर्योग की सर्जना की जा रही है एक सिनेमा के माध्यम से ? आशा है कि यह बस एक अफवाह ही होगी । उस महान चरित्र को सामान्य अथवा निम्न स्तर पे गिरालाने का अधिकार किसी की नहीं है ।
इतिहास चर्चा यहां प्रासंगिक नहीं है । पद्मिनी या पद्मावती नामधारी एक असाधारण सुंदरी मेवाड़ के महाराणा राजा रतन सिंह जी के पत्नी होना एक अवास्तव कल्पना होने की कोई कारण नहीं है । उनसे जड़ित जो सारे किवदंतियां कश्मीर से कन्याकुमारी तक हजारों सालों से अनगिनत कविताओं, गीतों, कहानियां और नाटकों के प्रेरणा रहे हैं उससे जुड़ा हुआ है एक ऐसा किरदार, वह अलाउद्दीन खिलजी बेशक है एक ऐतिहासिक चरित्र । इस व्यक्ति की पूर्व पुरुष तुर्क से थे । वह अफगानिस्तान के निवासी थे । फिर दिल्ली आकर दास वंश के आखिरी सुल्तान और उसके नाबालिग बेटे की हत्या करके उस आसन पर कब्जा जमाया । यह बारहवीं सदी के आखिर में घटी घटना। इसी नए सुल्तान के दामाद था अलाउद्दीन खिलजी । जीवन भर यह व्यक्ति केवल आक्रमण और लूटपाट करता रहा । उस समय का सबसे समृद्ध नगर देवगिरी को ध्वस्त करके इसने बेहिसाब दौलत लूट लिआ था । उसका ससुर तथा शुभचिंतक सुल्तान के अनुमति के बिना दामाद यह लूटपाट करने से वह महोदय जब थोड़े नाराज हुए उनको सम्मानित करने के बहाने निमंत्रित कर के दामाद ने हत्यारों से उनका सर कलम करवाया । असीरगढ़ आक्रमण कर के अनगिनत लोगों का बिना वजह हत्या कर डाला । गुजरात के अनेक नगरियाँ लूटपाट करके राजस्थान की ओर बढ़ते हुए रणथंभौर, माल्वा, धर आदि किलो को ध्वंस करके साल 1303 में चित्तौड़ आक्रमण की । जीवन की आखरी साल दो साल वह मलिक काफूर नाम का एक ग़ुलाम की बश में इस कदर फंसा की उसके उक्साने पर वह अपने सबसे काबिल और भरोसेमंद कर्मचारियों को हत्या कर बैठा । मृत्यु तक वह लगभग पागल हो चूका था । इतिहासकारों का मानना यह भी है कि मलिक काफूर ने ही उसकी जान ले ली ।
अलाउद्दीन बघेल दुर्ग की सुंदरी रानी को भी बंदी बनाकर ले गया था । चित्तौड़ की रानी की अतुलनीय सौंदर्य की गाथा सुनकर वह आकर चित्तौड़ किले का अवरोध किया और महाराणा को प्रस्ताव भेजा: वह पद्मिनी को अर्पण कर दें वरना जंग निश्चित । प्रस्ताव नामंजूर हुआ । वह युद्ध में हारा लेकिन अपनी सेना के साथ किले को सर पे लिए खड़ा पहाड़ के नीचे छावनी लगा कर रुका रहा और प्रस्ताव भेजा कि एक बार रानी को मन भर के देखने के बाद वह तुरंत लौट जाएगा। प्रस्ताव फिर से खारिज हुआ । अलाउद्दीन फिर से संदेश भेजा । रानी के चेहरे का प्रतिबिंब दर्पण में देखकर ही वह संतुष्ट हो जाएगा। इस बार प्रस्ताव मंजूर हुआ । वह अकेले दुर्ग में प्रवेश किया। आईने में जिनका परछाई देखा वह पद्मिनी ना होकर रानी की कोई सुंदरी सेविका हो सकी होंगी । वह जो भी हो तुष्ट होने का नाटक कर के विदा लेते समय विनम्रता बस राणा रतन सिंह उन्हें विदा करने के लिए अकेले दुर्ग द्वार से बाहर गए । तत्काल झाड़ियों में छिपे अलाउद्दीन के कुछ सिपाही राणाजी को काबू करके बंदी बना ले गए । अलाउद्दीन ने शर्त भेजा: या तो पद्मिनी उनके पास आ जाएं अन्यथा महाराणा अपनी प्राण खो बैठेंगे ।
पद्मिनी आने के लिए राजी है — ऐसा संवाद भेजा गया । परंतु उनके अभिजात्य के मुताबिक वह ७०० सेविकाओं के साथ आएंगी । खुशी से पागल अलाउद्दीन राजी हुआ। ७०० पालकियों में २८०० सो और उनके वाहक के रूप में और करीब ३००० राजपूत किले से निकल के सुल्तान के शिविर में पहुंचकर सब कुछ तहस-नहस कर डाले और राणा जी को मुक्त किया । अलाउद्दीन जैसे तैसे अपनी जान लिए भाग निकला ।
बाद में वह एक विशाल सेना के साथ चित्तौड़गढ़ पर हमला बोला। महाराणा के साथ दुर्ग के हर एक पुरुष — छोटे बालक समेत — युद्ध में अपने प्राण विसर्जन दी । आखिरी योद्धा के अंत के साथ किले के भीतर जल उठा धु धु आग । दुर्ग के सारे स्त्रियां उस में खुद को झोंक दिए ।
केवल राजस्थान में ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण भारतवर्ष में इस किंबदंती की विशाल लोकप्रियता का कारण क्या हो सकता है ? पद्मावती केवल असाधारण साहसी ही नहीं, बुद्धिमति और कौशल प्रयोग में भी असामान्य थी । उनकी जीवन विसर्जन उस बर्बर लालची हमलावर के मुंह पर तमाचा समान था। शमशान की सन्नाटा किसे कहते हैं उस दिन अलाउद्दीन किले के अंदर दाखिल होकर महसूस की होगी । घने धुएं की असहनीय काले बादल के बीच वह समझा होगा वैसि जीत में छिपा हो सकता है कितना भयानक हार ।
जनमानस में कुछ चरित्र महान आदर्श के प्रतीक के रूप में प्रतिष्ठित हुए होते हैं । साहस, कौशल और पवित्र आत्म सम्मान की प्रतीक हैं रानी पद्मावती । इसके अतिरिक्त अलाउद्दीन खिलजी का अपमान और नैतिक पराजय को चित्रित करके यह किंबदंती जन समूह की प्रतिशोध स्पृहा को चरितार्थ करता है । उनकी राज्य को तहस-नहस करने वाला हमलावर की दुर्गति को उपयोग करते हैं लोग । मामूली हेतुवाद, वास्तववाद, तर्क, तथ्य आदि कदापि जनसाधारण का न्यायसंगत भावावेग संबंधित चाह की विकल्प नहीं हो सकता ।
इस पर्याय की किंबदंती को मर्यादा देने के लिए हम सब को एक परिपक्व मनोवैज्ञानिक सूझबूझ के आलोक में इसको देखना होगा । जो सूझबूझ हम एक कमल के फूल को पसंद करना या शास्त्रीय संगीत सुनकर प्रसन्न होना सही है कि नहीं यह प्रश्न संविधान अथवा कानून शास्त्र के मापदंड से निर्णय करने का प्रयत्न नहीं करता ।
टीपू सुल्तान के जन्मदिन पर सरकारी उद्यम से उत्सव आयोजित होना उचित है कि नहीं इस बारे में इतिहास के तथ्य और उसके व्याख्या के आधार पर हम लम्बे तर्क में खुद को व्यस्त रख सकते हैं; परंतु तथ्य को आधार कर के राजा विक्रम को कटघरे में खींचने की कल्पना मूर्खता है । हितैषी बेताल की जिज्ञासा के कारण वह राजा न जाने कितने सामाजिक, सांसारिक और विचित्र और कई सारी समस्याओं का समाधान किए चले जा रहे थे । समूह की दृष्टि में वह एक असाधारण साधारण ज्ञान संपन्न वीर ।
संविधान ने हमको दिया है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता । मन भर के नाटक और सिनेमा बनाने का अधिकार । लेकिन रानी पद्मावती जैसी चरित्र को हल्के ढंग से प्रस्तुत करने से पहले खुद को यह प्रश्न करना जरूरी है की क्या है मेरा इरादा ? केवल पैसा कमाना तो नहीं ? उसी स्वार्थ के लिए अनगिनत लोगों के कल्पना के सुन्दर कमल फूल पर अपने कृत्रिम रंग लीपना अथवा उसके पवित्र सुगंध के ऊपर अपनी बनावटी इत्र छिड़कना यह कहां तक विवेक अनुमोदित कार्य होगी ?
मेवाड़ राज्य के परंपरा में चार अनन्य नारी किरदार के साथ हमारा परिचय होती है । पहला पद्मावती, दूसरा मीराबाई, तीसरा पन्ना धाय जो अपनी हिफाजत में पल रहे शिशु राजकुमार को हत्यारों के चंगुल से बचाने के लिए अपने ही बालक की बलिदान दे दी थी । चौथा थोड़े कम प्रख्यात थे । वह हैं कृष्णा कुमारी । यह राजकन्या भी अपने सौंदर्य के कारण चर्चित थी । दो पराक्रमी राजा उनको विवाह करने का प्रस्ताव भेजा । एक को स्वीकारने पर दूसरा मेवाड़ आक्रमण करना निश्चित था । राजा, मंत्रियों और अमात्यों इसी चिंता में अस्थिर हो रहे हैं यह जानकर कृष्णा कुमारी जहर पान करके प्राण विसर्जन कर दिए । राज्य युद्ध के संकट से मुक्त हो गया ।
इन सब की यादें सुरक्षित रहे, उसको विकृत ना कि जाए ।